माघ पूर्णिमा की व्रत कथा (Maghi Purnima Vrat Katha)
हिंदू धर्म में धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्व रखने वाली माघ पूर्णिमा को बहुत ही पुण्यफल देने वाली माना जाता है। इस दिन स्नान-दान का जितना महत्व है, उतना ही महत्व विष्णुपूजा करने और कथा सुनने का भी है।
व्रत कथा (Vrat Katha)
पौराणिक कथा में वर्णन मिलता है कि किसी नगर में धनेश्वर नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी रूपवती, पतिव्रता और सर्वगुण संपन्न थी। बस दुख था तो सिर्फ़ इस बात का, कि उनकी कोई संतान नहीं थी। यही कारण था, कि वो दोनों बहुत चिंतित रहते थे। एक बार उस नगर में एक महात्मा आए। वो नगर के सभी लोगों से दान लेते थे, लेकिन धनेश्वर की पत्नी जब भी उन्हें दान देने जाती, तो वो उसे लेने से मना कर देते थे। एक दिन धनेश्वर ने उन महात्मा के पास जाकर पूछा- हे महात्मन्! आप नगर के सभी लोगों से दान लेते हैं, लेकिन मेरी पत्नी के हाथ का दान क्यों नहीं स्वीकार करते? हमसे अगर कोई भूल हुई हो तो हम ब्राह्मण दंपत्ति आपसे क्षमा याचना करते हैं।
महात्मा बोले- नहीं विप्र! तुम तो बहुत ही विनम्र और हमेशा आदर-सत्कार करने वाले ब्राह्मण हो! तुमसे भूल तो कदापि नहीं हो सकती। महात्मा की बात सुनकर, धनेश्वर हाथ जोड़कर बोला- हे मुनिवर! फिर आख़िर क्या कारण है? कृपया हमें उससे अवगत कराएं। इसपर महात्मा बोले- हे विप्र! तुम्हारे कोई संतान नहीं है। और जो दंपत्ति निःसंतान हो, उसके हाथ से भिक्षा लेना, अधम या पापी के हाथ से भिक्षा ग्रहण करने के समान है! तुम्हारे द्वारा दिया गया दान लेने के कारण मेरा पतन हो जायेगा! बस यही कारण है, कि मैं तुम दंपत्ति से दान स्वीकार नहीं करता।
महात्मा के ये वचन सुनकर, धनेश्वर उनके चरणों में गिर पड़ा, और विनती करते हुए बोला- हे महात्मन्! संतान ना होना ही तो हम पति-पत्नी के जीवन की सबसे बड़ी निराशा है। यदि संतान प्राप्ति का कोई उपाय हो, तो बताने की कृपा करें मुनिवर! ब्राह्मण का दुःख देखकर महात्मा बोले- हे विप्र! तुम्हारे इस कष्ट का एक निवारण अवश्य है! तुम 16 दिनों तक श्रद्धापूर्वक काली माता की पूजा करो! मां प्रसन्न होंगी, तो उनकी कृपा से अवश्य तुम्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी! इतना सुनकर धनेश्वर बहुत ख़ुश हुआ। उसने कृतज्ञतापूर्वक महात्मा का आभार प्रकट किया और घर आकर पत्नी को सारी बात बताई। पति-पत्नी को महात्मा के द्वारा बताए गए उपाय से आशा की एक किरण दिखाई दी, और धनेश्वर मां काली की उपासना के लिए वन चला गया।
ब्राह्मण ने पूरे 16 दिन तक काली माता की पूजा की और उपवास रखा। उसकी भक्ति देखकर और विनती सुनकर मां ब्राह्मण के सपने में आईं, और बोलीं- हे धनेश्वर! तू निराश मत हो! मैं तुझे संतान के रूप में पुत्ररत्न की प्राप्ति का वरदान देती हूं! लेकिन 16 साल की अल्पायु में ही तेरे पुत्र की मृत्यु हो जाएगी। काली माता ने कहा- यदि तुम पति-पत्नी विधिपूर्वक 32 पूर्णिमासी का व्रत करोगे, तो तुम्हारी संतान दीर्घायु हो जायेगी। प्रातःकाल जब तुम उठोगे, तो तुम्हें यहां आम का एक वृक्ष दिखाई देगा। उस पेड़ से एक फल तोड़ना, और ले जाकर अपनी पत्नी को खिला देना। शिव जी की कृपा से तुम्हारी पत्नी गर्भवती हो जाएगी। इतना कहकर माता अंतर्ध्यान हो गईं।
प्रातःकाल जब धनेश्वर उठा, तो उसे आम का वृक्ष दिखा, जिसपर बहुत ही सुंदर फल लगे थे। वो काली मां के कहे अनुसार फल तोड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ने लगा। उसने कई बार प्रयास किया लेकिन फिर भी फल तोड़ने में असफल रहा। तभी उसने विघ्नहर्ता गणेश भगवान का सुमिरन किया, और गणपति की कृपा से इस बार वो वृक्ष पर चढ़कर फल तोड़ लाया। धनेश्वर ने अपनी पत्नी को वो फल दिया, जिसे खाकर वो कुछ समय बाद गर्भवती हो गई।
दंपत्ति काली मां के निर्देश के अनुसार हर पूर्णिमा पर दीप जलाते रहे। कुछ दिन बाद भगवान शिव की कृपा हुई, और ब्राह्मण की पत्नी ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने देवीदास रखा। जब पुत्र 16 वर्ष का होने को हुआ, तो माता-पिता को चिंता होने लगी कि इस वर्ष उसकी मृत्यु निश्चित है। दंपत्ति ने देवीदास के मामा को बुलाया, और कहा- तुम देवीदास को विद्या अध्ययन के लिए काशी ले जाओ, और एक वर्ष बाद वापस आना। दंपत्ति पूरी आस्था के साथ पूर्णिमासी का व्रत कर पुत्र के दीर्घायु होने की कामना करते रहे।
इधर काशी प्रस्थान के बाद मामा भांजे एक गांव से गुज़र रहे थे। वहां एक कन्या का विवाह हो रहा था, परंतु विवाह होने से पूर्व ही उसका वर अंधा हो गया। तभी वर के पिता ने देवीदास को देखा, और मामा से कहा- तुम अपना भांजा कुछ समय के लिए हमें दे दो। विवाह संपन्न हो जाए, उसके बाद ले जाना। ये सुनकर मामा ने कहा- यदि मेरा भांजा ये विवाह करेगा, तो कन्यादान में मिले धन आदि पर हमारा अधिकार होगा। वर के पिता ने मामा की बात स्वीकार कर ली और देवीदास के साथ कन्या का विवाह संपन्न हो गया।
इसके पश्चात् देवीदास पत्नी के साथ भोजन करने बैठा, लेकिन उसने उस थाल को हाथ नहीं लगाया। ये देखकर पत्नी बोली- स्वामी! आप भोजन क्यों नहीं कर रहे हैं? आपके चेहरे पर ये उदासी कैसी? तब देवीदास ने सारी बात बताई। यह सुनकर कन्या बोली- स्वामी मैंने अग्नि को साक्षी मानकर आपके साथ फेरे लिए हैं, अब मैं आपके अलावा किसी और को अपना पति स्वीकार नहीं करूंगी। पत्नी की बात सुनकर देवीदास ने कहा- ऐसा मत कहो! मैं अल्पायु हूं! कुछ ही दिन में 16 वर्ष की आयु होते ही मेरी मृत्यु निश्चित है। लेकिन पत्नी ने कहा, जो भी उसके भाग्य में लिखा होगा, वो उसे स्वीकार है।
देवीदास के बहुत कहने पर भी जब वो नहीं मानी, तो देवीदास ने उसे एक अंगूठी दी, और कहा- मैं विद्या अध्ययन के लिए काशी जा रहा हूं। लेकिन तुम मेरे जीवन-मरण के बारे में जानने के लिए एक पुष्प वाटिका तैयार करो! उसमें भांति-भांति के पुष्प लगाओ, और और उन्हें जल से सींचती रहो! यदि वाटिका हरी भरी रहे, पुष्प खिले रहें, तो समझना कि मैं जीवित हूं! और जब ये वाटिका सूख जाए, तो मान लेना कि मेरी मृत्यु हो चुकी है। इतना कहकर देवीदास काशी चला गया।
प्रातःकाल जब कन्या ने दूसरे वर को देखा, तो बोली- ये मेरा पति नहीं है! मेरा पति काशी पढ़ने गया है। यदि इसके साथ मेरा विवाह हुआ है, तो बताए कि रात्रि में मेरे और इसके बीच क्या बातें हुईं थी, और इसने मुझे क्या दिया था? ये सुनकर वर बोला मुझे कुछ नहीं पता, और पिता-पुत्र लज्जित होकर चले गए।
उधर एक दिन प्रातःकाल एक सर्प देवीदास को डसने के लिए आया, लेकिन उसके माता पिता द्वारा किए जाने वाले पूर्णिमा व्रत के प्रभाव के कारण वो उसे डस नहीं पाया। तत्पश्चात् काल स्वयं वहां आए और उसके शरीर से प्राण निकालने लगे। देवीदास मूर्छित होकर गिर पड़ा। तभी वहां माता पार्वती और शिव जी आए। देवीदास को मूर्छित देखकर देवी पार्वती बोलीं- हे स्वामी! देवीदास की माता ने 32 पूर्णिमा का व्रत रखा था! उसके फलस्वरूप कृपया आप इसे जीवनदान दें! माता पार्वती की बात सुनकर भगवान शिव ने देवीदास को पुनः जीवित कर दिया।
इधर देवीदास की पत्नी ने देखा कि पुष्प वाटिका में एक भी पुष्प नहीं रहा। वो जान गई की उसके पति की मृत्यु हो चुकी है, और रोने लगी। तभी उसने देखा कि वाटिका पुनः हरी-भरी हो गई है। ये देखकर वो बहुत प्रसन्न हुई। उसे पता चल गया कि देवीदास को प्राणदान मिल चुका है। जैसे ही देवीदास 16 वर्ष का हुआ, मामा भांजा काशी से वापस चल पड़े। रास्ते में जब वो कन्या के घर गए, तो उसने देवीदास को पहचान लिया और अत्यंत प्रसन्न हुई। धनेश्वर और उसकी पत्नी भी पुत्र को जीवित पाकर हर्ष से भर गए।
पौराणिक मान्यता है, कि जो स्त्रियां श्रद्धापूर्वक पूर्णिमा का व्रत रखती हैं, और कथा सुनती हैं, उन्हें संतान का सुख मिलता है, संकट से मुक्ति मिलती है, और समस्त मनोकामनाएं पूरी होती है।