कालयवन वध कथा

कालयवन वध कथा

पढ़ें कथा और जानें कैसे हुआ वध


कालयवन वध कथा (Kalyavan vadh katha)

आइए पढ़ते हैं श्री मंदिर के साथ कालयवन वध की कथा (Kalyavan Vadh Ki Katha)

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कालयवन जन्म से ब्राह्मण लेकिन कर्म से असुर था और अरब के पास यवन देश में रहता था। पुराणों में इसे म्लेच्छों का प्रमुख कहा गया है। कालयवन वध की कथा का वर्णन विष्णु पुराण के पंचम अंश के तेईसवें अध्याय मे किया गया है।

कालयवन ऋषि शेशिरायण का पुत्र था। गर्ग गोत्र के ऋषि शेशिरायण त्रिगत राज्य के कुलगुरु थे। उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की और एक अजेय पुत्र के लिए वार माँगा। भगवान शिव प्रसन्न हो कर प्रकट हो गए भगवान शिव ने कहा – हे मुनि! हम प्रसन्न हैं, जो मांगना है मांगो। ऋषि – मुझे ऐसा पुत्र दें जो अजेय हो, जिसे कोई हरा न सके। सारे शस्त्र निस्तेज हो जायें। कोई उसका सामना न कर सके। भगवान शिव ने कहा – तुम्हारा पुत्र संसार में अजेय होगा। कोई अस्त्र-शस्त्र से हत्या नहीं होगी, कोई भी सूर्यवंशी अथवा चंद्रवंशी योद्धा उसे परास्त नहीं कर पाएगा।

वरदान प्राप्ति के पश्चात ऋषि शेशिरायण एक झरने के पास से जा रहे थे कि उन्होंने एक स्त्री को जल क्रीडा करते हुए देखा, जो अप्सरा रम्भा थी। दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गए और उनका पुत्र कालयवन हुआ। अप्सरा रंभा के पृथ्वी पर समय समाप्ति पर वह अपना पुत्र ऋषि को सौंप कर स्वर्गलोक वापस चली गई।

काल जंग नामक एक क्रूर राजा मलीच देश पर राज करता था। उसे कोई संतान न थी जिसके कारण वह परेशान रहता था। उसका मंत्री उसे आनंदगिरि पर्वत के बाबा के पास ले गया। बाबा ने उसे बताया की वह ऋषि शेशिरायण से उनका पुत्र मांग ले।

ऋषि शेशिरायण ने बाबा के अनुग्रह पर पुत्र को काल जंग को दे दिया। ऋषि शेशिरायण का मन पुन: भक्ति में लग गया। इस प्रकार कालयवन यवन देश का राजा बना। उसके समान वीर कोई न था। एक बार उसने नारदजी से पूछा कि वह किससे युद्ध करे, जो उसके समान वीर हो। नारदजी ने उसे श्रीकृष्ण का नाम बताया।

भगवान श्री राम के कुल के राजा शल्य ने जरासंध को यह सलाह दी कि वे कृष्ण को हराने के लिए कालयवन से दोस्ती करें। कालयवन ने मथुरा पर आक्रमण के लिए सब तैयारियां कर ली। दूसरी ओर जरासंध भी सेना लेकर निकल गया।

कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश कृष्ण के नाम संदेश भेजा और कालयवन को युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में संदेश भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं। कालयवन ने स्वीकार कर लिया।

अक्रूरजी और बलरामजी ने कृष्ण को इसके लिए मना किया, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें कालयवन को शिव द्वारा दिए वरदान के बारे में बताया और यह भी कहा कि उसे कोई भी हरा नहीं सकता। श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि कालयवन राजा मुचुकुंद द्वारा मृत्यु को प्राप्त होगा।

जब कालयवन और कृष्ण में द्वंद्व युद्ध का तय हो गया तब कालयवन श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। श्रीकृष्ण तुरंत ही दूसरी ओर मुंह करके रणभूमि से भाग चले और कालयवन उन्हें पकड़ने के लिए उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा।

विष्णु पुराण का श्लोक

तेनानुयातः कृष्णोऽपि प्रविवेश महागुहाम् । यत्र शेते महावीर्यो मुचुकुन्दो नरेश्वरः ॥

भावार्थ- कालयमन से पीछा किए जाते हुए श्री कृष्णचंद्र उस महा गुहा में घुस गये जिसमें महावीर्य राजा मुचुकुन्द सो रहे थे।

श्रीकृष्ण लीला करते हुए भाग रहे थे, कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान बहुत दूर एक पहाड़ की गुफा में घुस गए। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। (जहाँ अब मौनी सिद्ध बाबा की गुफा है)

उसे देखकर कालयवन ने सोचा, मुझसे बचने के लिए श्रीकृष्ण इस तरह भेष बदलकर छुप गए हैं, और ललकार कर कहने लगा – देखो तो सही, मुझे मूर्ख बनाकर साधु बाबा बनकर सो रहा है। उसने ऐसा कहकर उस सोए हुए व्यक्ति को कसकर एक लात मारी।

वह पुरुष बहुत दिनों से वहाँ सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आंखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाए जाने से कुछ रुष्ट हो गया था।

उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गई और वह क्षणभर में जलकर राख का ढेर हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले, वे इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुंद थे। इस तरह कालयवन का अंत हो गया।

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